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कुली बैरिस्टर

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6408
आईएसबीएन :9788170287445

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बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति, रोचक भाषा-शिल्प और सहजता से ओत-प्रोत यह उपन्यास बार-बार पढ़े जाने लायक बन पड़ा है....

Kuli Barrister

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राजेन्द्र मोहन भटनागर का यह उपन्यास गाँधीजी के जीवन के उस बदलाव पर केन्द्रित है जिसने उन्हें एक सफल बैरिस्टर से महात्मा बना दिया। गाँधीजी विलायत से वकालत पढ़कर दक्षिण अफीका गए तो थे बेरिस्टर बनने, बैरिस्टर वह बने भी और सफल भी हुए लेकिन वहाँ की रंगभेद की नीति ने उन्हें इतना द्रवित किया वह वैभव का जीवन छोड़कर अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते संघर्ष पर उतर आए। इसी राह ने उन्हें महात्मा भी बनाया। बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति, रोचक भाषा-शिल्प और सहजता से ओत-प्रोत यह उपन्यास बार-बार पढ़े जाने लायक बन पड़ा है। विलायत से वकालत पढ़ने के बाद गांधीजी बैरिस्टर बनकर दक्षिण अफ्रीका गए। वहाँ की रंगभेद की नीति ने तमाम अश्वेत लोगों के साथ उन्हें भी कुली ही माना। एक सफल बैरिस्टर होने के बावजूद गांधीजी ने रंगभेद की अमानवीयता को समझा और उससे लड़ने को कमर कस ली। उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा को अपना हथियार बनाया और अन्तत: वह महात्मा बनकर स्वदेश लौटे और आज़ादी के संघर्ष में लग गए। राजेन्द्र मोहन भटनागर का उपन्यास गांधीजी के इस बदलाव को कदम-दर-कदम बहुत बारीकी से पकड़ता है। बेहद रोचक उपन्यास गांधीजी को विचारपूर्ण ढंग से पाठकों के सामने लाता है। उपन्यास की सहजता ही इसकी सबसे बड़ी खूबी है।

दो शब्द


मुझे तेईस वर्ष तीन माह से अधिक समय हो रहा है, परन्तु ‘अर्धनग्न फकीर’ उपन्यास पूरा होने में नहीं आ रहा। बीच-बीच में बहुत समय तक उसे छुआ भी नहीं जा सका। अब अन्तरराष्ट्रीय गांधी सत्याग्रह शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। डॉ. हार्डीकर का फोन आया। उन्होंने स्मरण कराया कि ‘अर्द्धनग्न फकीर’ जब आएगा तब आएगा, इस समय गांधी जी पर आपका कुछ आना ही चाहिए, चाहे उसमें से आए पर आए, क्योंकि आपने उसमें सत्याग्रह के प्रारम्भ का तत्त्व-विश्लेषण कथा के रूप में जीवन्त किया है। यह बात मेरे मानस-पटल पर रह-रहकर दस्तक देने लगी। मैंने पुन: उस उपन्यास को उठाया। उसे पढ़ते हुए वे सारे दृश्य-परिदृश्य मेरे सामने आने लगे जो उसका पाठ करने पर चर्चित हुए थे और प्रश्नाकुल भी।

तब का सच क्या आज का सच हो सकेगा ? क्योंकि परिस्थितियाँ तब से भिन्न और जटिल हैं। रह-रहकर मैं अपने इस मुकाम पर खड़ा होता हूँ कि सत्य प्रयोग के लिए नहीं, जीने के लिए है। सन् 1954-55 की बात है, जब नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा में काका कालेकर आए थे और उसके ‘हिमालय नो प्रवास’ पर चर्चा के बाद गांधी विषय के केन्द्र में आ गए थे। तब मेरा विस्तृत लेख ‘साम्यवाद का भारतीयकरण’ चर्चा में था। और उससे एक सप्ताह पूर्व जयप्रकाश नारायण सेंट जोंस कॉलेज, आगरा में आए थे। तब मैं जिस टोली में था, उसमें गाँधी को लेकर कोई उत्साह नहीं था। हम लोग मानने लगे थे। कि भारत को आज़ादी मिलने का कारण अहिंसा नहीं है। इस बिन्दु को लेकर काका कालेलकर और जे.पी. से खासी चर्चा हुई थी, परन्तु निर्णय कुछ नहीं निकल सका। तब रांगेय राघव भी वही थे और डॉ. रामविलास शर्मा भी। उसमें भी गांधी को लेकर वह उत्साह नहीं था जिसे गांधीवादी बनाए रखना चाहते थे। उनमें संशय था।

काफी समय बीत गया। मुझमें राजनीति का ज्वर उतर चुका था। बहस काम की नहीं लगती थी, क्योंकि उसके बाद सन्नाटा और गहरा हो जाता था और आस्था थकी-थकी लगती थी। वह पी. भार्गव थी, जिसने मेरी छपी कहानियों में से कुछ को रेखांकित करते हुए अनचाहा सुझाव दे दिया था, ‘‘तुम कथा के माध्यम से उन गाँठों को भी ढंग से खोल लेते हो, जिन पर बहस कुल्हाड़े चलाकर थक जाती है। कीचड़ से हाथ धोने से हाथ साफ होते।’’

धीरे-धीरे उठते-बैठते, चलते-फिरते मुझमें कथा-कहानी संवाद उठाने लगी और मैं धीरे-धीरे कथा से जिन्दगी के रहस्य को समझने का प्रयास करता रहा। गांधी की पकड़ मुझमें यहाँ से शुरू हुई। जैनेन्द्र कहा करते थे कि, ‘‘उन्होंने अपना ईश्वर-सत्य वहीं से उठाया है, जहाँ से गांधी ने।’’ गांधी ने रस्किन और टॉलस्टॉय के सत्य पर पड़ी राख को कुरेदा था। हर एक दार्शनिक, कलाकार और साहित्यकार को अपने समय की राख कुरेदनी पड़ती है और चिनगारी को फिर से आग बन जाने तक बिना रुके मशक्कत करनी होती है। एक बार आग हाथ लग जाए तो फिर अंधेरे रास्ता देने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
मुझे कुछ अनुभव हुआ कि मानव की कहानी आग से शुरू होती है और आग तक जाती है। लिखने के लिए इस आग की ज़रूरत है।
यों गांधी खुलने लगे। उसकी आदमीयता स्वयं रास्ता देने लगी और जो अदृश्य अस्पर्श था, उसका अनुभव होने लगा। देखते ही देखते यह कम्पनी ‘अर्द्धनग्न फकीर’ की कहानी से दूर होती गई और आग ज्योति बनकर प्रशस्त करने लगी। गांधी भारत में जहाँ रहे, वहाँ मैं भी गया, रहा और प्रयत्न किया कि उनसे सम्वाद होने लगे। वक्त अवश्य लगा परन्तु निराशा की बदली ऐसी छंटी कि आसमान साफ़ नज़र आने लगा-मय अपने सूरज-चाँद और सितारों के साथ।

ब्रह्माण्ड अनंत है परन्तु हम चुटकी भर अनंत ब्रह्माण्ड को उलटने का दावा ठोंकते नज़र आते हैं। मृत्यु के आगे को रेखांकित करना चाहते हैं-स्वर्ग-नरक की कल्पना-कहानी के साथ। मुझे लगता रहा है कि इस तरह हम बाहर कुछ भी बने रहें परन्तु अंदर से अपने बौनेपन की राख नहीं हटा पाते हैं।

गांधी एक संघर्ष है-उन अच्छाई-बुराइयों के साथ, जो किसी में कम और किसी में ज़्यादा होती हैं और होती दोनों ही हैं। उनका कहना ही मानव को मानव-सा दीखने के लिए बाहर-अंदर से न केवल अनुप्रेरित करता है बल्कि अपनी आग पर से परदा हटाने, जिजीविषा के साथ जीने और घेरों को तोड़कर बाहर आने की चेष्टा करता है। वह किसको जोड़ता है और किसको तोड़ता है-यह जानना जो उनके साथ रहे, उनके लिए भी उतना ही कठिन था, जितना उनके न रहने उन्हें पढ़कर, उनके बारे में पढ़कर और मीमांसकों का नजरिया जान-समझकर उसको जानने-भर का दावा करना। गुन्थर, अमेरिका के विख्यात लेखक, यह मानते हुए भी कि उनमें वे सब अच्छाई-बुराइयाँ थीं, जो बड़े से बड़े महात्मा, अवतार, राजनेता, नीतिकार, धर्म संस्थापक में भी हो सकती हैं-उन्हें वे सबसे बड़े पेचदार व्यक्ति लगे, जो किसी की पकड़ में नहीं आ सकते। कदाचित् महानता यही होती है, ठीक से यह कहना भी कठिन है। गांधी ने कुरूप की परिभाषा ही बदल दी थी। वक्तृता में कमज़ोर पड़ते हुए भी वे अपने-आपको कमज़ोर सिद्ध नहीं होने देते थे। सर्वधर्म की प्रार्थना को जिजीविषा के केन्द्र से रखकर भी वे उस वक्त तिलमिला उठते हैं, जब कुछ समय के लिए उनका पुत्र धर्म-परिवर्तन कर मुसलमान बनता है।

गाण्डीव हर एक नहीं उठा सकता और न सुदर्शन-प्रयोग हर एक के बूते की बात है। ठीक ऐसे ही अहिंसा का अस्त्र-शस्त्र उठाना हर एक से संभव नहीं है। कोई मारे या ना मारे, स्वयं मरने की तरफ़ बढ़ना पड़ता है। ऐसे बिन्दु अन्ततोगत्वा मृत्यु में भी शमन पाते हैं। मृत्यु भी अहिंसा है, बशर्ते बहुत से लोगों के हित के लिए हो। यों वह शुभ भी है। गांधी जी ने पोलैंड की हिंसा को लगभग अहिंसा में शुमार करके यह जतलाया था कि आत्मरक्षा के हित में हिंसा भी अहिंसा ही होती है। जब यही प्रश्न मैंने आचार्य विनोबा भावे से किया था, उनका सहयात्री बनकर, तो उन्होंने भी यही कहा था, ‘‘बिना अहिंसा में डूबे इसको समझना मन को बहलाने जैसा है।’’ क्या श्रीराम-श्रीकृष्ण अहिंसक नहीं थे ?

यह मंथन कुछ-कुछ गुत्थियाँ खोल सकता है। बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता-अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:। ये मेरे वृहत् उपन्यास के हिस्से आई गुत्थियाँ हैं जो सुलझाने के अनेकानेक प्रयत्न करने के बावजूद उलझती जाती हैं।
‘‘पर तुम क्यों उलझते हो, भटनागर ! गांधी की जिस पृष्ठभूमि पर उनकी नींव रखने जा रहे हो, वह आकार रहित भवन की नींव भरने भर है। वह भी ऐसे भवन की, जिसका नक्शा बने बिना ही नींव डालनी शुरू की गई हो।’’
‘‘पुष्पा, तुमने बात बड़े पते की है। तब ये किशोर थे, असफल बैरिस्टर, क़मज़ोर, अपमान पर अपमान सहने वाले, अपने कुचले जा रहे व्यक्तित्व के तटस्थ द्रष्टा !’’

‘‘छुट्टी।’’
‘‘इतनी जल्दी।’’
‘‘मुझे आज कई जगह जाना है। तुम्हें उलझता पाकर मुझे साथ बिताए कॉलेज के दिनों की याद आ गई है और फिर से यह सिद्ध करने का मोह, कदाचित् अवसर त्यागने का मन नहीं हुआ कि पुष्प की आदि आचार्य स्त्री है।’’ कॉफी खत्म कर उठते हुए उसने कहा, ‘‘कम से कम भलेमानस, इस कृति के पहले पाठक होने की गुरु-दक्षिणा देना ना भूलना।’’

वह चली गई। गांधी का बुखार उतरने लगा और गांधी चल पड़ा सम्भावनाओं के अकल्पित क्षितिज की ओर शनै:-शनै:। जहाँ वो महान नहीं था, जहाँ वो सामान्य स्तर पर बुद्धिमान होने की चेष्टा कर रहा था। मुझे एक कमज़ोर व्यक्ति की कल्पना बेहद आकर्षक लग रही थी।
यद्यपि सम्भावनाओं की क्षितिज नहीं होता तथापि सम्भावनाओं के होने से इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन पर जीने का सारा दारोमदार है। फिर क्यों न आपको भी उस धूमिल, अस्पष्ट परन्तु सम्मोहक कामनाओं की अदृश्य झील की ओर ले चलूँ, जिसका मैं कभी साथी बन सका ! दुनिया की सबसे ऊँची सड़क खरदुंगला, जहाँ चमड़े के जूते स्वयं सिकुड़ने लगते हैं और साँस लेना दूभर हो जाता है। वैसे यहाँ पागांग झील भी है, जिसका आधा हिस्सा लद्दाख में है और आधा चीन में और जिसका स्वाद बेहद खारी है और मिज़ाज एकदम उच्छृंखल-लगभग अशांत। डल झील एकदम विपरीत। सौ फिट गहरी ज़्यादा भी पर कम नहीं, तब गांधी की गति, बुद्धि की मति-नीति, हृदय की लय आदि किसी ऐसे किशोर युवक को अपने में से गुज़रते देख रही थी, जिसको राह पाने की तलाश थी। सम्भावनाओं की यह यात्रा उन सभी को अवांछित अतिथि बनने का संकेत दे रही है, जिससे होकर गांधी ने महात्मा बनने तक की यात्रा तय की थी।

तब दक्षिण अफ्रीका में सभी सम्भ्रान्त और बुद्धिजीवी भारतीय कुली थे-कुली समाज के कच्चे-पक्के हिस्से ! इसकी कहानी वहीं से उठती है और वही अल्पविराम पाते हुए पुजौरा की तैयारी की ओर संकेत देती है। कच्चा बहीखाता पक्के बहीखाता पक्के बहीखाते से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। इस उपन्यास की मंजरी गंध कहीं यही संकेत है। एवमस्तु !
राजेन्द्रमोहन भटनागर

कुली बैरिस्टर


रोज़ सूरज उगता है। रोज़ सूरज़ डूबता। दिन-रात समुद्र होता। उनकी तेज़ नमकीन हवाएँ होतीं। उच्छृंखल लहरें शोर मचातीं। स्टीमर को सिर से पाँव तक हिला डालतीं। आकाश निगरानी करता लगता। मोहनदास करमचंद गांधी डेक पर आ खड़ा होता और बेतरह भीग जाता। परन्तु उसकी सोच इससे आगे नहीं बढ़ पाती कि समुद्री जीव जो हर पल समुद्र में समाये रहते हैं, उनसे लोनी बास क्यों नहीं आती है ? लेकिन वहाँ उत्तर देने वाला कोई नहीं होता। सघन सन्नाटा एक साथ पत्थर तोड़ने की कभी तेज़, कभी मद्धिम ध्वनि का प्रसारण करता होता।

पहले बैरिस्टरी की पढ़ाई कठिन लगती थी और अब उसे पास करने के बाद अपने को बैरिस्टर सिद्ध करना। काश ! यह काम भारत में रहते हुए आसान हो जाता हो क्यों अपना घर छोड़कर मुल्क में पहुँचने के लिए बेमन से टिकिट कटाना पड़ता ?

इंग्लैण्ड से दो वर्ष पहले ही तो वह पढ़कर लौटा था। तब वहाँ भी अपना घर याद आता रहता था। रोज़ी-रोटी के लिए इतनी दूर का फासला तय करना सहज नहीं था। वहाँ पत्नी कस्तूरबा को एक बच्चे के साथ छोड़कर निकलना पड़ा था। उससे कितनी उम्मीदें सँजो रखी थीं सारे घर ने ! तब बैरिस्टर होकर लौटने का निश्चित अर्थ था-आसमान छूती खुशहाली के दिनों का तेजी से घर की चौखट पार कर आते जाना। परन्तु उसके मन में बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए जाते समय ऐसा कुछ था और न बैरिस्टर होकर लौटते वक्त। उसमें अज्ञात सन्नाटा था।

उसके सन्नाटे को ममीबाई और सघन कर जाती थी। ममीबाई की बड़ी-बड़ी पैनी-धारदार आँखें उसका पीछा कर रही होतीं। वह उससे बिना कहे कुछ पूछ रही होतीं।

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